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आत्मदशन(हिन्दी)

आभार

आभार,सत्य के जिज्ञासुओं ने यह पुस्तक संभव बनाई है। जिज्ञासुओं के प्रश्नों के साथ उत्तरों को एक पुस्तक का रूप देकर पाठकों के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है। यह पुस्तक आध्यात्मिक साधकों के लिए अमृत्तुल्य साबित होगी। इसी श्रद्धा के साथ  .....


लेखक

इस पुस्तक में दिए उत्तरों से एक आम इंसान की समस्याएं तथा आध्यात्मिक साधकों की जिज्ञासाओं का समाधान हो।
इन प्रश्नों के उत्तरों में लेखक की आत्मा है जिससे पाठकों की आत्मा प्रकाशित हो। इसी दृष्टि के साथ....


राजेश सोनी 
10 दिसंबर, 2020, इंदौर


1. आत्मा क्या है ?
2. कोई बुरी लत को कैसे छोड़े ?
3. क्या हमें बच्चों को आध्यात्मिकता से जोड़ना चाहिए ?
4. जीवन का उद्देश्य क्या है ?
5. मेरे पास सब है फिर भी दुख क्यों है ?
6. क्या किसी ने ईश्वर को देखा है ? 
7. भगवान को प्राप्त करने का सीधा-सरल उपाय क्या है ?
8. जिंदगी क्या है ?
9. क्या वाकई में ईश्वर है, क्योंकि अनेक धर्मों में पीछे की व्याख्या अलग-अलग रूप से की गई है ?
 10. मोक्ष क्या जरूरी है ? गृहस्थ होते हुए भी मोक्ष कैसे प्राप्त किया जा सकता है ?
11. मनुष्य कभी प्रसन्न और कभी अप्रसन्न क्यों होता रहता है ?
12. आखिर क्यों आज मुझे इतना दुख मिला, जबकि मैं आज इतनी खुश थी ?
13. क्या जीवन बहुत जटिल है, या हम इसे बना रहे हैं ?
14. यदि ईश्वर है तो हमसे क्या चाहता होगा ?
15. सद्गुरु को कैसे पहचाने ?
16. क्या ध्यान से भौतिक सुख प्राप्त किया जा सकता है ?
17. सत्य क्या है ? 
18. मैं नास्तिक हूं और ध्यान करना चाहता हूं। क्या यह संभव है, तो कैसे ? 
19. भगवान ने हमें क्यों बनाया ?
20. देवी-देवता के प्रति गलत विचार आते हैं। कैसे रोकें ?
21. एक इंसान खुद को बुरी आदतों से कैसे बाहर ला सकता है ? 
22. हम मूर्ति-पूजन क्यों करते हैं ?
23. क्या मैं अपनी पालतू बिल्ली को अपना आध्यात्मिक गुरु मान सकता हूं ?
24. क्यों मैं बिना किसी बात के रोता रहता हूं, और रोने के बाद भगवान से उसकी वजह क्यों पूछता हूं ?
25. अगर कोई व्यक्ति आपके जीवन से कुछ सीखना चाहता है, तो आप उसे क्या संदेश देना चाहेंगे ?
26. कृष्ण ने राधा से विवाह क्यों नहीं किया था ?
27. वर्तमान में बढ़ती घरेलू घरेलू हिंसा का मूल कारण क्या है ?
28. मेरी शादी एक कम पढ़े लिखे परिवार में हो गई है। जिनसे मेरे विचार, रहन-सहन, खाना-पीना बिल्कुल भी नहीं मिलता। मेरा दिमाग हमेशा खराब रहता है। इसलिए मुझे क्या करना चाहिए ?
29. काम वासना से कैसे मुक्त होए ?
30. आप निर्मल बाबा के भक्तों से क्या कहना चाहेंगे ?
31. मैं क्या करूं ? मेरा जीवन जीने का मन नहीं करता है।
32. प्यार की परिभाषा क्या है ? 
33. जीना किसके लिए सही है, खुद के लिए या दूसरों के लिए ?
34. वास्तव में जिंदगी का सही रस क्या है ?
35. जिंदगी और सपने में क्या अंतर है? क्या जिंदगी सच है या सपना या दोनों ही झूठ की गठरी है ? 
36. इंसान की इतनी कीमत क्यों है ?
37. जिंदगी में कैसे खुश रहे ?
38. परिवर्तन से सब को डर क्यों लगता है ?
39. मेघा गोयल ने प्रश्न भेजा (send) किया है। वह पूछती है, मनुष्य के अंदर गलत विचार क्यों आते हैं ?
40. क्या भगवान पर विश्वास रखना अंधविश्वास है ?
41. मृत्यु क्या है ? इसके बारे में विस्तार से वर्णन करें।
42. जिंदगी की दौड़ में क्या है, जो अक्सर छूट जाता है ?
43. क्या जीवन को वर्तमान में जीना यकीनन संभव है ?
44. सुख-दुख क्या है ?
45. धर्म का उद्देश्य मनुष्य को कहां ले जाना है ?
46. क्या ईश्वर है ?
47. क्या बताएंगे कि ब्रह्म सत्य,जगत मिथ्या का तात्पर्य क्या है ?
48. मनुष्य मोक्ष के बारे में कुछ नहीं जानता है, फिर भी मोक्ष क्यों पाना चाहता है ?
49. गीता का सार अपने शब्दों में समझाइएं।
50. स्कूल की पढ़ाई विद्या है कि अविद्या ? 
51. मन को समाधि की स्थिति तक कैसे लेकर आएं ?
52. क्या माया को देखना भी एक माया है ? 






1. आत्मा क्या है ?

एक आत्मा मरने के बाद दूसरा शरीर धारण करती है। कई लोगों ने इसको अनुभव किया है। 
किसी व्यक्ति के साथ अचानक दुर्घटना होती है। वह अपने शरीर को अपने से बाहर पड़ा हुआ देख लेता है, तथा दोबारा शरीर में प्रवेश कर जाता है। इस प्रकार की कई घटनाएं आपको सुनने को मिल जाएंगी। व्यक्ति के जीवन में इस प्रकार की घटना घटने पर वह आत्मज्ञानी नहीं हो जाता है। 
दूसरी आत्मा जिसके बारे में कृष्ण वर्णन करते हैं, संतजन इशारा करते हैं। इसको जान लेने पर व्यक्ति आत्मज्ञान को उपलब्ध होता है।
दुर्घटनावश, आप इस आत्मा की भी अनुभूति पा सकते हो। आपके शरीर पर ही नहीं आपके मन पर भी दुर्घटना घट सकती है। इस प्रकार की घटना अक्सर आत्मज्ञानियों की संगत में घटती है।
महाभारत के समय भी कई लोग जानते थे कि कृष्ण जो कह रहे हैं, सत्य कह रहे हैं पर वे आत्मज्ञानी नहीं थे, मुक्त नहीं थे। उनका दुख जारी था, लेकिन वे जानते थे कि आत्मा क्या है ?


2. कोई बुरी लत को कैसे छोड़े ?
 
हां, यदि आपको कोई बुरी लत है और आप उसे सच में छोड़ना चाहते हैं, तो उसे न करने का संकल्प करिए और छोड़ दीजिए। फिर भी अगर कोई लत या आदत न छूटे तो उसके लिए उपाय है। इस उपाय से संसार की कोई भी, कैसी भी बुरी-से-बुरी लत को आसानी से छोड़ी जा सकती है।
उपाय - जब भी आपके मन में कोई बुरी आदत या लत उठे, उसके पहले सजग हो जाइंए जैसे नींद में से किसी सपने से जाग कर उठते हो, तो उस पल, कुछ देर के लिए स्वप्न बने रहते हैं। लेकिन आपके जागरण के कारण वे स्वप्न बड़ी ही तेजी से विलीन होने लगते है। बस इसी जागरण के साथ, इसी सजगता के साथ आपकी आदत को अपने ऊपर हावी (overpower) होते हुए देखें। उस आदत को सिर्फ देखना है, उसे पकड़ना नहीं है। इस प्रकार आप कुछ ही दिनों में सजगता को पकड़ लोंगे, जान लोंगे कि सजगता क्या है ? अब जब कभी भी आपके मन को कोई बुरी आदत पकड़े, कुछ पल के लिए सजग हो जाएं और सपने की तरह, जागरूकता के साथ उसे विलीन होते हुए देखें। आपकी कैसी भी बुरी आदत बड़ी ही सरलता से छूट जाएंगी।
दूसरा उपाय - जब भी आपकों कोई बुरी लत पकडे़ या आप उसका इस्तेमाल करें तो अपने आप को देखें। जैसे-किसी अपरिचित व्यक्ति को देखते हो। जैसे - आप किसी नाटक के पात्र हो। नाटक के साथ बने रहिए तथा जागरूक होकर अपने आप को सिगरेट पीते हुए या शराब पीते हुए देखिए। मन में विचार न करें कि यह सही है, यह गलत है। मुझे यह करना चाहिए, यह नहीं करना चाहिए। सिर्फ अपने आपको देखिए जैसे कोई नाटक चल रहा हो या अपने आपको सपने की तरह देखिए, तो आप अलग और आपका नाटक अलग हो जाएगा।  आपकी लत और आप अलग हो जाएंगे आप इस नाटक को जब तक जारी रखना चाहे, जारी रखें और जब छोड़ना चाहे छोड़ दीजिए। क्योंकि नाटक से आप अचानक बाहर आ सकते हैं।
अतः किसी लत को छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। जागरूकता या साक्षी भाव के साथ अपनी लत का मजा उठाएं और जब चाहे तब छोड़ दें।


3.क्या हमें बच्चों को आध्यात्मिकता से जोड़ना चाहिए ?

आध्यात्मिकता में ऐसी क्या बुराई है जिससे आप अपने बच्चों को दूर रखना चाहते हो ?
आध्यात्मिकता जीवन जीने की कला है। इससे कोई बच्चा वंचित रह जाता है तो अपने जीवन को नर्क बना डालता है। जैसा कि हमें संसार में देखने को मिलता है। इस नर्क को ही हमने स्वर्ग समझ रखा है। इसलिए हम आध्यात्मिकता से डरते हैं।
बच्चे आध्यात्मिकता को आसानी से समझ लेते है। मेरा अनुभव है कि जो बातें मैं बड़ों को नहीं समझा पाता हूं, बच्चे आसानी से समझ लेते हैं। क्योंकि सरलता के कारण उनके मन में किसी बात के प्रति अवरोध नहीं होता है। वे हर बात को सीधे-सीधे स्वीकार कर लेते हैं। ध्यान दुनिया की सरलतम चीजों में से एक है। परंतु बड़े आसानी से नहीं समझ पाते हैं, बच्चे समझ जाते हैं। मैं जब बच्चों से ध्यान की बात करता हूं, तो वे तुरंत ही ध्यान में प्रवेश कर जाते हैं। क्योंकि वे ध्यान के बहुत करीब होते हैं।
आध्यात्मिकता कोई जंग का मैदान नहीं है। यह तो ज्ञान की एक ज्योति है जिससे आपका बच्चा अपने जीवन को अंधकार में डूबने से बचा लेता है तथा संसार को रोशन करता है।

 
4. जीवन का उद्देश्य क्या है ?

जीवन का उद्देश्य जीवन ही है, ताकि हम अपने जीवन को भरपूर जिए। 
हमारे दुख का कारण भी यही है कि हम पूर्णरूप से जीना चाहते हैं, पर जी नहीं पाते हैं।
मैं नहीं कहता कि टीवी न खरीदे, वाशिंग मशीन न खरीदें। कूलर न खरीदें। व्यक्ति का संपन्न होना भी जरूरी है। फिर भी हम दुखी हैं तो हम जीवन से भटक गए हैं। आज अमेरिका एक संपन्न देश है फिर भी दुख जारी है।
दुनिया के महानतम बुद्धिमान, वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन दुखी थे। अपने जीवन को दोबारा जीना चाहते थे । वे जीवन के अंतिम पड़ाव पर जीवन के उद्देश्य की खोज करते हुए मरे।


5. मेरे पास सब है फिर भी दुख क्यों है ?

हम पूर्णरूप से जीवन जीना चाहते हैं लेकिन हमारा मन हमें भविष्य या भूतकाल में भटकाता रहता है। हम पूर्णरूप से वतमान में जीवन जी नहीं पाते हैं। यही हमारे  दूख का कारण है। जो जीवन को भरपूर जीता है, वह हमेशा आनंद में रहता है।
अपने जीवन को पल-पल, हर क्षण जियो। भोजन करो तो स्मृति बनी रहे कि मैं भोजन कर रहा हूं। नहाते, टहलते, काम करते हुए, सदा अपना स्मरण बनाए रखें कि मैं अपने होने के साथ हूं। तब आपको आनंद का अनुभव होगा। यही आनंद आपको अपनी ओर खींचेगा। आनंद में लीन हो जाईए। आप वह पा लेंगे जो पाने योग्य है।


6. क्या किसी ने ईश्वर को देखा है ? 

ईश्वर को सभी ने देखा है। सभी को सत्य का अनुभव है। लेकिन उस अनुभव को ठिक से जाना नहीं है। उसे जानने की कोशिश नहीं की है। 
नींद में, जब आप सपनों में खोए रहते हैं तो सपने ही सत्य होते है। लेकिन जैसे ही सपना टूटता है आप अपने होने में, अपने ईश्वर में स्थापित हो जाते हैं। आप स्वप्न के सारे सुख-दुख सपनों के साथ विलीन होते हुए देखते हो। 
सपने की ही तरह आप जागे हुए भी, विचारों में खोए रहते हैं। एक विचार खत्म होने के बाद तथा दूसरा विचार शुरू होने से पहले, दो विचारों के बीच में आप सत्य या ईश्वर को अनुभव करते हो। उन क्षणों को आप पकड़ नहीं पाते हो, और वे खो जाते हैं। 
विचारों के परे आप और आपका ईश्वर एक है।
ध्यान कीजिए। विचारों को थोड़ा विराम दीजिए। आप सत्य के इन क्षणों को पकड़ पाएंगे, ईश्वर को देख पाएंगे, ईश्वर को जान पाएंगे।


7. भगवान को प्राप्त करने का सीधा-सरल उपाय क्या है ?

भगवान को प्राप्त करने का सीधा-सरल उपाय ध्यान है। आज मैं उस ध्यान के बारे में बताता हूं जिससे हजारों-हजारों लोग ईश्वर को उपलब्ध हुए है। यह अनापानसती-योग विधि बोध्यधर्म से ली गई है। इस विधि का लाखों लोग अनुसरण कर रहे हैं। 
30 मिनट  के इस ध्यान में, आप किसी भी आसन में बैठ सकते हैं, जिसमें आपको सुविधा हो या पीठ के बल स्वशासन में लेट जाईए। अपने शरीर को ढीला छोड़िए। हल्के से आंखें बंद करिए और भाव करिए कि मेरे विचार शांत हो रहे हैं... मेरे विचार शांत हो रहे हैं ....चार-पाँच मिनट में ही आप देखेंगे, आपके विचार शांत हो गए हैं। फिर आप अपने मन को अपनी आती-जाती सांसों पर एकाग्र कीजिए। विचार मत कीजिए। आपकी सांसों के साथ अपने मन को भी गति करने दें। जैसे सांस अंदर जाती है तो आपका मन भी अंदर चला जाएं, बाहर जाती है तो बाहर। आप अपना पुरा ध्यान, संपूण चेतना सांसों पर टिका दें। इस प्रकार सांसों के साथ आप भी अंदर-बाहर होते रहिए। कुछ ही दिनों में आप भगवान को प्राप्त  कर लेंगे।


8. जिंदगी क्या है ?

जिंदगी प्रेम है, आनंद है, सत्य है। इसको पाने के लिए ही हमने जन्म लिया है।
जिंदगी पाने के लिए हम अपने से बाहर भटकते हैं। कई परेशानियां उठाते हैं। फिर भी  इसे प्राप्त नहीं कर पाते हैं। इसे जी नहीं पाते हैं। यही एकमात्र हमारा दुख है।
आकाश में उड़ते पक्षी अपना जीवन जीते हैं। लहराते पेड़-पौधे अपना जीवन जीते हैं। उगता सूरज अपना जीवन जीता है। पृथ्वी पर एकमात्र इंसानी ही अपना जीवन जी नहीं पाता है। 
जीवन से पलायन करने के लिए हमने कई तरह के उपाय कर रखे हैं पर जीवन के लिए नहीं। जीवन हमारे चारों ओर घट रहा है। अगर देखकर भी नहीं सीख पाएं तो हमें कोई क्या समझाएगा ?


9. क्या वाकई में ईश्वर है, क्योंकि अनेक धर्मों में पीछे की व्याख्या अलग-अलग रूप से की गई है ?

ईश्वर का होना या न होना कोई मायने नहीं रखता है जब तक आप उसे देख न लो, जान न लो। बिना देखे, बिना जाने, मानने से आपको कोई लाभ नहीं होने वाला है। आप जैसे हैं वैसे ही बने रहेंगे। आपमें कोई बदलाव आने वाला नहीं है। ईश्वर को जान लेने पर ही आपके प्रश्न का उत्तर आपको मिलेगा। अन्यथा आप कभी ईश्वर के होने पर विश्वास करोंगे और कभी नहीं करोंगे। आपका ईश्वर दो कौड़ी का होगा।
प्रश्न में आगे जिज्ञासा की है कि अनेक धर्मों में पीछे की व्याख्या अलग-अलग रूप से की गई है।
वह व्याख्या नहीं है। ईश्वर को जिन्होंने देखा और जाना है, उनकी गवाही है। उनकी जैसी दृष्टि थी उन्होंने वैसी ही व्याख्या की है। ईश्वर को जान लेने  पर आप उन सभी व्याख्याओं को समझ पाएंगे और उन व्याख्याओं के गवाह बन जाओंगे।


 10. मोक्ष क्या जरूरी है ? गृहस्थ होते हुए भी मोक्ष कैसे प्राप्त किया जा सकता है ?

हां, मोक्ष उतना ही ज्यादा जरूरी है जितना ज्यादा जीवन। जीवन और मोक्ष अलग अलग नहीं है। मोक्ष  को जानकर ही हम जीवन को जान पाते हैं। 
आप जैसा जीवन जी रहे, आपने उसे वैसा ही मान रखा है। जबकि मोक्ष या जीवन एक बहुत बड़ी घटना है। गृहस्थ रहकर भी मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि संसार छोड़कर आप जहां जाएंगे, संसार आपके पीछे आएंगा।
किसी जागे हुए पुरुष से संपर्क बनाइए। उस पर श्रद्धा रखिए। वह आपके लिए हर संभव प्रयास करेगा।


11. मनुष्य कभी प्रसन्न और कभी अप्रसन्न क्यों होता रहता है ?

मनुष्य सिर्फ मनुष्य नहीं है। मनुष्य विचार भी है। आज का मनुष्य तो सिर्फ विचार मात्र है।
मनुष्य के मन में जैसे विचार चलते हैं वह वैसा ही बर्ताव करता है। उसके मन में जब खुशी के विचार आते रहते हैं तो वह प्रसन्न रहता है और जब दुख के विचार आते हैं तो वह अप्रसन्न हो जाता है। हो सकता है यह क्रिया उसके अनजाने ही चलती हो। पर यही सत्य है।
प्रसन्नता और अप्रसन्नता मन का खेल है। मन से ऊपर उठने पर ही आनंद घटित होता है, जो आत्मा से आता है।


12. आखिर क्यों आज मुझे इतना दुख मिला जबकि मैं आज इतनी खुश थी ?

प्रकृति का नियम है कि आपको दुख मिलता है, तो उसको सहने की शक्ति भी मिलती है। आप बहुत भाग्यशाली है कि ईश्वर ने दुख दिखाने से पहले आपको खुश रखा ताकि आप दुख को सहन कर सकों। 
यद्यपि खुशी वापस लौटकर आने वाली है। जीवन में दो खुशियों के बीच एक क्षण दुख का होना ही चाहिए, ताकि आप खुशी को जान सकों। उसे जी सकों।
आनंद हमारा स्वभाव है, जबकि दुख क्षणभर का है, हां, क्षण भर का। मेरे जीवन में मेरे जीवन का सबसे बड़ा दुख घटा तो वह मात्र क्षणभर का था। उस समय मानो में जमीन में धंस गया होऊ, जैसे मेरा ह्रदय बैठ गया हो। मेरी आंखों से सिर्फ  दो बूंद आंसू बाहर आए। क्षण-दो-क्षण बाद, मैं फिर सामान्य हो गया। ऐसा दुख मेरे जीवन में दोबारा नहीं आएंगा।
हम दुख को जितना ज्यादा याद रखते हैं  वह उतना ही ज्यादा हो जाता है। जबकि दुख दो खुशियों के बीच मात्र क्षणभर का होता है।


13. क्या जीवन बहुत जटिल है, या हम इसे बना रहे हैं ?

जीवन सरलतम है। इसे जटिल हम बना देते हैं। मेरा अनुभव है कि जो बातें में बड़ों को नहीं समझा पाता हूं, बच्चे आसानी से समझ जाते हैं। क्योंकि सरलता के कारण उनके मन में किसी बात के प्रति अवरोध नहीं होता है, प्रतिरोध नहीं होता है। वे हर बात को सीधे-सीधे स्वीकार कर लेते हैं। जबकि बड़ों का मन बहुत जटिल होता है। वे सीधी-सरल बातों को भी बहुत जटिल बना देते हैं। शायद, जीसस क्राइस्ट ने इसलिए कहा है कि प्रभु के राज्य में वही प्रवेश करेगा जो बच्चे जैसा होगा। जब आप अपने साथ होते हो , वर्तमान में जीते हो तो जीवन घटित होता है।


14. यदि ईश्वर है तो हमसे क्या चाहता होगा ?

मेरे जीवन का संस्मरण है। जब कोई पिक्चर, धार्मिक स्थल या उद्यानभोज (picnic spot) मुझे बहुत अच्छा लगता था, इससे जो खुशी और आनंद मुझे मिलता था तो मैं चाहता था कि यह खुशी और आनंद मेरे दोस्तों को भी मिले। इसके लिए मैं स्वयं का पैसा खर्चा करके उन्हें वह आनंद दिलवाता था, और उनके साथ दोबारा उस आनंद को भोगता था। ईश्वर भी यही चाहता है कि वह जो आनंद भोग रहा है, वह आनंद आपको भी उपलब्ध हो। इससे कम में वह राजी हो ही नहीं सकता है। इसके लिए वह चाहता है कि आप अपने आप को पहचाने। सत्य या ईश्वर क्या है ? इसकी खोज करें।
जब पृथ्वी पर पाप और अधर्म बढ़ जाता है तो वही हमारा ध्यान रखता है।


15. सद्गुरु को कैसे पहचाने ?

एक दिन, मैं अपने कुछ मित्रों के साथ उद्यानभोज (pic nic) पर गया। हमने वहां एक बड़ा सा कमरा बुक किया और उसी कमरे में हम सब एक साथ पास-पास सोए थे। 
मैं अक्सर सुबह 5:00 बजे ध्यान के लिए उठता हूं। अतः स्नान के बाद, जब मैं ध्यान के लिए बैठा तो मैंने सबसे पहले मेरे ही सामने सो रहे अपने मित्रों को देखा, जो बड़े ही अस्त-व्यस्त सोए हुए थे। नींद में, उन्हें बिलकुल भी होश नहीं था। किसी का हाथ इधर, किसी का पैर उधर, किसी के मुंह से लार बह रही थी। मैंने ध्यान में उन्हीं का निरीक्षण किया। 
20 मिनट बाद मेरा पहला मित्र उठा। उसे बिल्कुल होश नहीं था कि वह कहां है? उसने अपनी आंखें मली। पास में सोए हुए, अपने साथी मित्रों को देखा। अभी भी वह पूरे होश में नहीं था। जब उसे थोड़ा होश आया तो उसका ध्यान मेरे तरफ गया। अचानक वह सजग हो उठा। उसने मेरी तथा अपनी और अपने साथियों की स्थिति जानी कि हम कौन हैं? यहां किसलिए आए हैं ? अब उसे तीन अलग-अलग लोगों की स्थितियों का भान था। मेरी, स्वयं की तथा अपने सोए हुए मित्रों की। वह अभी भी आधा सोया, आधा जागा हुआ था। नींद में देखे गए स्वप्नों का ख्याल अभी भी उसके मन में चल रहा था। अब आगे क्या करना है? उसकी भी योजना वह बना रहा था। उसने जैसे ही अपने एक मित्र को उठाने की कोशिश की तो हमारा तीसरा मित्र हड़बड़ा कर जागा। उसे तो कुछ पलों के लिए अपना बिल्कुल होश नहीं था। अब उसे चार लोगों की स्थिति का भान था। मेरी, स्वयं की, अभी-अभी उठाए गए अपने मित्र की तथा बाकि सोए हुए मित्रों की।
दुनिया में बस यही चार-पांच स्थितियां सोए हुए लोगों व जागे हुए पुरुषों के बीच होती है। अगर कोई मेरे पहले मित्र की तरह थोड़ा-सा जागरण को उपलब्ध हो जाएं, तो वह आसानी से इन सोए हुए लोगों में स्वयं तथा सद्गुरु को पहचान सकता है। दूसरा कोई उपाय नहीं है।  
सद्गुरु को पहचानने के लिए आपको थोड़े जागरण को तो उपलब्ध होना ही पड़ेगा।


16. क्या ध्यान से भौतिक सुख प्राप्त किया जा सकता है ?

ध्यान से महासुख प्राप्त किया जा सकता है। महाभोग प्राप्त किया जा सकता है।
भौतिक सुख प्राप्त करने के लिए ही ध्यान किया जाता है। ध्यान दुनिया की महानतम खोज है। हम सब ध्यान के बारे में जानते हैं। हम ध्यान करते भी हैं। लेकिन हम ध्यान में हो नहीं पाते हैं। ध्यान में होना एक अलग बात है। ध्यान को कहा तो जा सकता है। लेकिन समझा नहीं जा सकता है। ध्यान में होना ही समझना है। लेकिन वहां समझने वाला कोई होता नहीं है। हम कहते हैं कि मुझे ध्यान में यह अनुभव हुआ, मुझे ध्यान में वह अनुभव हुआ। जबकि ध्यान सारी अनुभूतियों के परे घटित होता है। आप वहां बिना मन के होते हो, स्वयं के साथ, वस्तुओं के साथ। यही महाभोग है।
जब आप कोई वस्तु खरीद कर लाते हो जो आपको सुख देने वाली है। कुछ दिनों में ही उसका सुख गायब हो जाता है और आप दूसरी वस्तुओं को खरीदने की सोचने लगते हैं। अतः आप एक-के-बाद एक वस्तुएं खरीदते जाते हो, लेकिन उनसे सुख की कोई अनुभूति नहीं होती है।
भौतिक सुख को प्राप्त करने के लिए आपका होना आवश्यक है। आपके मन का ठहराव आवश्यक है। भौतिक सुख की अनुभूति के समय हमारा मन कहीं और भटकता रहता है जिसके कारण भौतिक सुख की अनुभूति पूर्णत: उपलब्ध नहीं हो पाती है। 
ध्यान भौतिक सुख को पूर्णत: प्राप्त करने योग्य बनाता है। विचारों और खयालों में भटकते हुए मन को शांति देता है। आपको पल-पल जिना सिखाता है और वस्तुओं का पूर्णत: एहसास कराता है। भौतिक सुख की अनुभूति कराता है। 
ध्यान वस्तुओं को चैतन्य बना देता है। ध्यान के बिना वस्तुएं तो वस्तुएं आप मनुष्य को भी वस्तु बना देते हो और महादुखों को भोगते हो। ध्यान भोग से मुक्ति नहीं है। ध्यान महाभोग है जो आपके मन को पूर्ण तृप्ति देकर निर्मल बना देता है।


 17. सत्य क्या है ? 

सत्य एक दृष्टि है जिससे हम संसार को देखते हैं। इस दृष्टि से संसार वैसा ही दिखाई देता है जैसा वह है। परंतु हम उसे कल्पनाओं,भावनाओं, अपेक्षाओं या वासनाओं की दृष्टि से देखते हैं। जिसके कारण सत्य दिखाई नहीं देता है।
सत्य हर क्षण घटित हो रहा है। सत्य को कहा नहीं जा सकता है। इसे देखा जा सकता है। 
साल-दो साल का बालक वस्तुओं के बारे में सोचता नहीं है। उसे बिना विचारों के सीधे-सीधे देख पाता है। यही सत्य को देख लेना है।
ध्यान एवं योग की साधना आपके मन को सीधा-सरल एवं निर्मल बना देती है जैसे बिना बादलों के नीला आकाश। यही सत्य है। आप इस सत्य से सत्य की ओर यात्रा करते हो और अनंत सत्य को उपलब्ध होते हो।


18. मैं नास्तिक हूं और ध्यान करना चाहता हूं। क्या यह संभव है, तो कैसे ? 

ध्यान एक विधि है। विधि को आस्तिक और नास्तिक दोनों अपना सकते हैं। वह आप से नहीं पूछती है कि आप किस धर्म से हो।
जिस प्रकार कोई औषधि (medicine ) बीमार व्यक्ति से नहीं पूछती कि आप आस्तिक हो या नास्तिक।
गौतम बुद्ध न आस्तिक थे न नास्तिक। फिर भी उन्होंने ध्यान किया और जीवनभर ध्यान में रहे।
ध्यान आस्तिकता व नास्तिकता दोनों से परे है।


19. भगवान ने हमें क्यों बनाया ?

भगवान ने हमें इसलिए बनाया था कि हम अपने आप को जान सकें। 'भगवान का होना है।' यह जान सकें।
भगवान का कार्य भी यही है। इससे वह अपने आपको जानना चाहता है। 
वह क्रियाशील है। उसकी क्रियाशीलता हमारा होना है।
क्रियाशीलता और निष्क्रियता एक दूसरे में लगातार घुल-मिल रहे हैं। यही तो हमारा जन्म लेना और मृत्यु को प्राप्त होना है। यही ईश्वर का होना भी है।


20. देवी-देवता के प्रति गलत विचार आते हैं। कैसे रोकें ?

आप अपने विचारों को जितना दबाओंगे वे उतने ही उभरकर आएंगे।
आप बुरे विचारों पर ध्यान करो। आंखें बंद करों, मन में आ रहे विचारों को मन की आंखों के सामने रखकर देखों जैसे आप कोई पिक्चर देख रहे हो तथा अपने सपनों के बीच-बीच में भाव करों कि 'यह स्वप्न है।' आपके विचार तुरंत गायब हो जाएंगे और उस दौरान आप अपने साक्षीभाव में आ जाएंगे। आप अपनी आत्मा को जान पायेंगे।
विचार तो विचार है। विचार ईश्वर नहीं है। ईश्वर शब्द ईश्वर नहीं है। ईश्वर हमारे अच्छे और बुरे विचारों से परे है।


 21. एक इंसान खुद को बुरी आदतों से कैसे बाहर ला सकता है ? 

जब कभी आपके मन में कोई बुरी आदत उठे, तब तुरंत सजग हो जाईए जैसे नींद में से किसी स्वप्न से जाग उठते हो। उस पल कुछ देर वे स्वप्न बने रहते हैं। लेकिन आपके जागरण के कारण वे स्वप्न बड़ी तेजी से विलीन होने लगते हैं। बस, इसी जागरण, इसी सजगता के साथ अपने मन में उठ रही बुरी आदतों को देखें। उस आदत को अपने ऊपर हावी (overpower) होते हुए देखें। उस आदत को सिर्फ देखना है। उसे पकड़ना नहीं है और न ही विचार करना है कि यह गलत है, यह सही है। सिर्फ साक्षीभाव से,आंखें बंद करके, अपने मन की आंखों के सामने उन आदतों को देखें जैसे आप कोई पिक्चर देख रहे हो। कुछ ही दिनों में आप सजगता को पकड़ लोंगे। जान लोंगे कि सजगता क्या है ? सजग होना क्या है ? अब जब कभी भी आपके मन में कोई बुरी आदत उठे, कुछ पल के लिए सजग हो जाइए और सपने की तरह इस आदत को सजगता के सामने विलीन होते हुए देखिए। आपकी कोई भी बुरी आदत सरलता से छूट जाएगी।


22. हम मूर्ति-पूजन क्यों करते हैं ?

हम निराकार ईश्वर की धारणा नहीं कर सकते हैं, इसलिए निराकार की पूजा नहीं होती है। हां, निराकार को आकार देकर उसका पूजन कर सकते हैं और निराकार को उपलब्ध हो सकते हैं।
मूर्ति या गुड्डे-गुड़िया हमारे बचपन की यादों से भी जुड़ी है। उससे हमारा एक आंतरिक प्रेम है।
मीरा को बचपन में कृष्ण की मूर्ति से प्रेम हो गया। मीरा कृष्ण को जैसा रखती थी वो वैसे ही रहते थे। इससे मीरा को कृष्ण के साथ रमने, कृष्ण के साथ होने में बड़ी सरलता महसूस हुई। बचपन का यह प्रेम भक्ति बन गया और मीरा कृष्णमय हो उठी। ईश्वर को प्राप्त हुई।
अगर हम एक मूर्ति के साथ भी प्रेम में हो सके तो ईश्वर को उपलब्ध हो सकते हैं। कृष्ण कहते हैं, "आप जिसका भी पूजन करते हैं उसके द्वारा आप मेरी ही पूजा करते हैं।"


23. क्या मैं अपनी पालतू बिल्ली को अपना आध्यात्मिक गुरु मान सकता हूं ?

नहीं, क्योंकि एक पालतू बिल्ली इतनी सजग या ध्यानपूर्ण नहीं होती, जितनी एक जंगली बिल्ली। जंगली बिल्ली बने बनाए रास्तों पर नहीं चलती है। उसका हर कार्य सजगता से उठता है। लेकिन एक पालतू बिल्ली के पास सारी सुख-सुविधा होने के कारण वह निश्चिंत हो सकती है, अपनी सतर्कता खो सकती है। आपकी गुलाम हो सकती हैं। 
पालतू शब्द कितना खतरनाक है। क्या एक गुरु को तुम पालतू बना सकते हो ? और जो गुरु पालतू होने को राजी हो जाएं, वह अपना गुरुत्व खो देता है। अगर बिल्ली को ही गुरु बनाना हो तो जंगली बिल्ली को बनाना, जो पालतू न हो। आप उससे सजगता, सतर्कता या ध्यानपूर्ण होना सीख सकते हो। उस पर ध्यान करों। उसका चलना,उठना बैठना, भोजन करना कितना सजगतापूर्ण होता है। वह नींद में भी जागी हुई प्रतीत होती है। इसी सजगता के द्वारा आप आध्यात्मिकता में प्रवेश कर सकते हो। एक जंगली बिल्ली की तरह सजग होना सीखों। बिल्ली आध्यात्मिक हो न हो आप आध्यात्मिक हो जाएंगे l


24. क्यों मैं बिना किसी बात के रोता रहता हूं, और रोने के बाद भगवान से उसकी वजह क्यों पूछता हूं ?

हंसने और रोने के ऊपर उठो। जो स्वभाविक हो रहा है उसे होने दों। रोने में बुराई क्या है ? लेकिन सामाजिक शिक्षा के कारण, हम रोना भी भूल गए हैं। रोने के बाद आप भगवान से उसकी वजह इसलिए पूछ रहे हो क्योंकि आप बेवजह रोने को गलत समझते हो। आपमें शुभ लक्षण दिखाई देते हैं l जितना रो सकते हैं, रोए। बेवजह रोए, रोना आपकी आंखों को साफ-स्वच्छ बना देगा। आपके हृदय को हल्का कर देगा। निर्दोष बना देगा।
अब, जब कभी भी रोना आए, खूब रोए, और अपने आप को रोते हुए देखें। आप अपने ऊपर हंस भी सकेंगे। अपने रोने को एक साधना बना लीजिए। आप ध्यान को जल्दी ही उपलब्ध हो जाएंगे।


25. अगर कोई व्यक्ति आपके जीवन से कुछ सीखना चाहता है, तो आप उसे क्या संदेश देना चाहेंगे ?

अब तक आपने अपने जीवन से जो सीखा है, उसे अनसिखा कर दों। शिक्षा और समाज ने आपको इतना चालाक बना दिया है कि इस चालाकी में आपने अपनी निर्दोषता एवं सरलता खो दी है। 
बच्चे अपनी निर्दोषता एवं सरलता में जीवन से जुड़े होते हैं। जीवन से सीखते हैं। हम तो जीवन से सीखना ही भूल गए हैं। अगर आपको जीवन से कुछ सीखना है, तो जीवन से सीखना नहीं, जीवन से जुड़ना है। जीवन को पाना है। 
हम हमारे ज्ञान के परदे से जो देखते हैं, वह जीवन नहीं है। जीवन तो तब घटित होता है, जब आप अपने ज्ञान को एक तरफ रख देते हो। जब आप अपने आप में उलझे रहने की बजाए जीवन से जुड़ते हो, आप अपने साथ होते हो।
जब आप अपने साथ होते हो तो जीवन घटित होता है। आपको जीवन से जीवन सीखना है।


26. कृष्ण ने राधा से विवाह क्यों नहीं किया था ?

कृष्ण के लिए प्रेम, प्रेम है विवाह नहीं है। उन्होंने जीवन से बंधना नहीं सीखा। जीवन से प्रेम सीखा। उनके लिए प्रेम ही सब कुछ था।
प्रेम में सारी दूरियां मिट गई l वे दूर-दूर होकर भी साथ हो सकें। वे दूर होकर भी पास थे। इसलिए हमने मंदिरों में राधा कृष्ण को हमेशा एक साथ रखा।
राधा ने प्रेम में जो ऊंचाइयां छुई, श्री कृष्ण जैसा व्यक्तित्व उस ऊंचाई से किसी को भी गिराना नहीं चाहेगा। वह कृष्ण से भी आगे निकल गई। क्योंकि कृष्ण पूर्ण थे, राधा प्रेम में पूर्ण हो गई।


27. वर्तमान में बढ़ती घरेलू घरेलू हिंसा का मूल कारण क्या है ?

जीवन में ज्यादा भागदौड़ होने के कारण व्यक्ति अशांत हो गया है, हिंसक हो गया है। अशांत व्यक्ति से शांति की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। हिंसक व्यक्ति से अहिंसा की अपेक्षा नहीं की जा सकती है।
अशांत व्यक्ति अपने होश में नहीं रहता है। अतः बेहोशी की हालत में व्यक्ति अपनी ऊर्जा पर काबू नहीं कर पाता है, और ऊर्जा निकलने के लिए मार्ग खोजती है। उसके लिए व्यक्ति या तो मारपीट करता है या संभोग के द्वारा अपनी उर्जा निष्कासित करता है जो एक सूक्ष्म हिंसा है।
यही कारण है कि व्यक्ति नशा भी करता है, ताकि अपनी अशांति, अपनी हिंसा को भूल जाए जो उसे जला रही है। यही परेशानी महिलाओं के साथ भी समान हैं। वे भी पुरूषों से आगे निकल रही है। अब दो हिंसक लोगों से प्रेम की अपेक्षा कैसे की जा सकती है ? यही कारण है कि इंसान में प्रेम का अभाव हो गया है। इंसान प्रेम करना ही भूल गया है।
इंसान को सीखना होगा कि हिंसा से प्रेम की ओर, बेहोशी से जागरण की ओर कैसे यात्रा की जाएं।


28. मेरी शादी एक कम पढ़े लिखे परिवार में हो गई है। जिनसे मेरे विचार, रहन-सहन, खाना-पीना बिल्कुल भी नहीं मिलता। मेरा दिमाग हमेशा खराब रहता है। इसलिए मुझे क्या करना चाहिए ?

विवाह के बाद यह परेशानी लगभग हर महिला और पुरुष को आती है। इससे बचने के लिए हमने पश्चिम की तरह  प्रेमी, प्रेमिका (boyfriend, girlfriend) रखने शुरू कर दीए है। (live in relationship) को अपना रहे हैं। लड़का-लड़की विवाह से पहले सालों साथ रहते हैं। फिर भी शादी के बाद उनके विचार नहीं मिलते हैं। साथ ही कई प्रकार की परेशानियां सामने आती है। और जिन दो लोगों के विचार मिलते हैं, वे भी जल्दी ही एक-दूसरे से ऊब जाते हैं। एक दूसरे के प्रति आकर्षण खो देते हैं। सभी पति और पत्नी समायोजन (adjustment) कर रहे हैं।
आप अपने जीवन में विचारों से थोड़ा ऊपर उठे। अपने परिवार के विचारों को थोड़ी स्वतंत्रता दें, और आप भी स्वतंत्र रहें। प्रेम को अपने परिवार में जगह दें। प्रेम एकमात्र ऐसी शक्ति है, जो परिवार की हर परेशानी को अपने में समा लेती है।
हमारे हाथ की पांचों उंगलियां समान नहीं है, फिर भी वे कितने अच्छे से किसी कार्य को अंजाम दे पाती है। अपने आप को समझने की कोशिश कीजिए। अपनी समझ या विवेक को जगाईए, समय के साथ परिवर्तन होगा।


29. काम वासना से कैसे मुक्त होए ?

कामवासना में ऐसी क्या बुराई है ? जिससे आप मुक्त होना चाहते हैं। यह तो संसार का महानतम सुख है। हम कामवासना से ही बने हैं। यह हमारे शरीर के रोए-रोए में व्याप्त है। इससे भागना नहीं, इसे समझना है। हर मनुष्य में जीवन जीने की इच्छा व्याप्त है। आपकी कामवासना भी जीना चाहती है। इसलिए वह आपके शरीर से बाहर निकलना चाहती है। जैसे-मां अपने बच्चे को जन्म देती है।
हमारी चेतना कामवासना का स्त्रोत है। जब तक हम अचेत  है, कामवासना को चेतना से ऊर्जा मिलती रहती है। आप कामवासना से बच नहीं सकते हैं पर जब आपकी चेतना चेतन हो जाती है, सचेत हो जाती है. तो अपने स्वभाव में स्थिर हो जाती है। यह स्थिरता ही कामवासना से मुक्ति है। स्थिरता का अनुभव कीजिए। आपका अनुभव ही आपको मुक्ति दिलाएगा।
इसके लिए आप सिद्धासन या पद्मासन में बैठ जाईए। अपने शरीर को थोड़ा ढीला छोड़िए। फिर अपनी आंखें बंद कीजिए, तथा जिस प्रकार नींद में आप सपने देखते हैं, एक सपना देखिए, और अपने मन की आंखों के सामने किसी स्त्री, या कोई स्त्री हो तो पुरुष की कल्पना कीजिए। अब अपनी वासना को भोगीए। जब वासना आपको अपनी आगोश में ले, अपने में डूबा ले तो मन में एक भाव करें कि 'यह स्वप्न है।' तुरंत ही आप अपनी चेतना में स्थिर हो जाएंगे। आपकी कामऊर्जा क्रियाशीलता से निष्क्रियता में बदलने लगेगी। आपकी कामऊर्जा काम केंद्र से ऊपर की ओर उठने लगेगी। 
अब आप जानते हैं कि साक्षीभाव में कैसे स्थिर हुआ जाता है ? यह साक्षी या साक्षीभाव ही आपको कामवासना से मुक्त रखता है। यही आपका स्वभाव है। यही आत्मउपलब्धि का क्षण है।  इसी क्षण को जीवन कहा जाता है। यही साक्षीभाव ध्यान में घटित होता है। ज्यादा-से-ज्यादा साक्षीभाव में रहिए।  कामवासना आपको छू भी नहीं पाएंगी और एक दिन, आप पूर्णरूपेण कामवासना से मुक्त हो जाएंगे।


30. आप निर्मल बाबा के भक्तों से क्या कहना चाहेंगे ?

अगर लोग बाबाओं के पास अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए जाते हैं, तो उन्हें नहीं जाना चाहिए। क्योंकि इच्छाएं तो समय के साथ वैसे भी पूर्ण हो जाती है। लेकिन मांगने की जो प्रवृत्ति लोगों में है, उसे देने वाला बाबा रोक नहीं सकता है, क्योंकि इससे उसका धंधा चौपट हो जाता है।
आगे, आपने पूछा है, भक्तों से क्या कहना चाहेंगे ? भक्तों से कहने के लिए बहुत है, पर भिखारियों से क्या कहूं ? अगर उनमें कोई भक्त है, तो कहना चाहूंगा कि आपको कोई भी गुरु ईश्वर नहीं दे सकता है। उसकी खोज तो आपको ही करनी पड़ेगी। कोई व्यक्ति आपका सहयोगी हो सकता है। सहयोग लो और उसका पीछा छोड़ दों।


31. मैं क्या करूं ? मेरा जीवन जीने का मन नहीं करता है।

हां ! आपको जीवन जीने का मन नहीं करता है। मुझे भी जीने का मन नहीं करता था। जब व्यक्ति सुबह से शाम तक मेहनत करके थक जाता है, तो उसे रात विश्राम करना पड़ता है। जब व्यक्ति जीवन से ही थक जाता है, तो वह मृत्यु में विश्राम खोजता है।
हम जीवन से इसलिए थक या परेशान हो जाते हैं, क्योंकि हमें आराम करना नहीं आता है। हम जीवनभर परेशान होते रहते हैं। लेकिन आराम नहीं कर पाते हैं। एक परेशान व्यक्ति मृत्यु के बाद भी परेशान रहता है।
जीवन से विश्राम जीवन में ही है मृत्यु में नहीं।
विश्राम में होना एक महानतम कला है, जो आपको जीवन प्रदान करती हैं।
जब आप थकान से विश्राम में जाएं, तो आपका शरीर ही नहीं आपका मन भी विश्राम करें। आपका मन इधर-उधर भागना छोड़ दें, सोचना, विचार करना छोड़ दें और आप अपने आप में ठहर जाएं।
इससे आप तरोताजा हो जाएंगे और आपका जीवन दोबारा जी उठेगा। 
जब आप अपने साथ होते हो, तो जीवन घटित होता है। जब आप अपने से दूर विचारों एवं सपनों की दुनिया में खो जाते हो, तो दुखी एवं अशांत हो जाते हो।
विश्राम के समय ध्यान में होना आसान होता है। अतः ध्यानपूर्ण विश्राम करें । यही ध्यान आपके कार्य में प्रवेश कर जाएंगा।
इस संघर्षभरी दुनिया में ध्यान और आपका कार्य एक साथ गती करें, ताकि आप शांत हो आनंदपूर्ण बने रहें। यही जीवन जीने की कला है।


32. प्यार की परिभाषा क्या है ? 

प्यार सत्यम शिवम सुंदरम के प्रति आकर्षण है। प्यार में इंसान अपनी ही आत्मा को खोजता है। जो स्वयं के साथ प्रेम में नहीं हो सकता है, वह दूसरों की ओर आकर्षित होता है। वह प्रेम में स्वयं को खोकर प्रेमी हो जाना चाहता है तथा स्वयं को ही पा लेना चाहता है। यही प्रेम का आकर्षण है।
जब दो व्यक्ति प्रेम में होते हैं, तो उनके बीच समय खत्म हो जाता है। उनका मन समय के पार चला जाता है। जहां दोनों का होना एक हो जाता है। यह एकता ही सत्यम शिवम सुंदरम है।
जो प्रेम को अपने अंदर नहीं खोज पाता है, उसकी प्रेम यात्रा बाहर गति करती है। और अपने प्रेमी को पाकर सत्यम शिवम सुंदरम हो जाती है।


33. जीना किसके लिए सही है, खुद के लिए या दूसरों के लिए ?

जीना खुद के लिए सही है। दूसरों के लिए जीना तो अपने आप को धोखा देना है। दुसरों को प्रेम देना, प्रेम पाने का उपाय है। 
अगर आप किसी को खुशी पहुंचाते हो, तो वह खुशी एक दिन जहर बन जाएंगी। क्योंकि आप अपने जीवन में खुश नहीं है। आप प्रेमपूर्ण नहीं है।
जब तक आप प्रेम या आनंद को उपलब्ध न हो जाएं, आप उसे बांट नहीं सकते हैं।
जब तक एक पौधा फूलों से भरा न हो, एक पेड़ फलों से लदा न हो, वे अपने फूल-फल बांट नहीं सकते हैं। जब आप आनंद एवं प्रेम से पूर्ण होते हो, तो उसे बांटने के लिए पूछना नहीं पड़ता है। उसे बांटना ही आनंद होता है। 
जब गौतम बुद्ध ज्ञानी नहीं थे, तो वे चुप रहते थे जैसे वे हो ही न। पर जैसे ही वे ज्ञान व आनंद को उपलब्ध हुए, तो उसे बांटने के लिए अपने मित्रों को खोजने लगे।
जब वे घर पहुंचे, तो पत्नी यशोधरा ने अपने बेटे राहुल को मजाक में एक बात कह  दी, "देख ये तेरे पिता है जो एक सन्यासी है।  जा संपत्ति के रूप में, जो इनसे मांगना है, मांग ले।" तब बुद्ध ने राहुल को दीक्षा दे डाली। उन्होंने कहा, "यह मेरा बेटा है। इसके लिए क्या सही है ? मैं जानता हूं। मेरे पास आनंद और ज्ञान की जो संपदा है, वह मैं उत्तराधिकारी के रूप में राहुल को देता हूं।"


34. वास्तव में जिंदगी का सही रस क्या है ?

वास्तव में, जिंदगी का सही रस प्रेम है। जो हमें बाहर से नहीं हमारे अंदर से ही उपलब्ध होता है। आपने भी कभी महसूस किया होगा कि अचानक, अकारण आप बहुत खुशी महसूस कर रहे हैं। आप इतने आनंदित है कि आपके पास जो आता है, आपके आनंद का आभास उसे भी होता है। आप आनंद में झूमने लगते हो, बच्चों जैसी बचकाना हरकतें करने लगते हो। आपको नाचने का मन होता है। यही वह रस है, जिसे आप पाना चाहते हैं। रास्ता कैसा भी हो सारी दुनिया इसी रस की खोज में है।
आपकी जब कोई इच्छा पूर्ण होती है, तो कुछ पलों के लिए आप इसी रस को उपलब्ध होते हो। आपका कोई मित्र मिलता है तब, आप किसी पहाड़ पर सुंदर हरियाली को देखते हैं तब, किसी खूबसूरत बच्चे की हंसी देखकर या जब आपसे आपका प्रेमी प्रेम का इजहार करता है तब, जब आपको कोई प्रेम से गले लगाता है तब, जिंदगी में आपको जहां-जहां आकर्षण दिखता है उस आकर्षण में उसी रस की खोज है। यह रस आपको कुछ पलों के लिए उपलब्ध होता है और खो जाता है। लेकिन कृष्ण, बुद्ध या मीरा इसे हमेशा के लिए पा लेते हैं और जीवनभर आनंदित रहते हैं। इसे ही वेदों में रसों का रस कहा है। 
ध्यानी ध्यान में,भक्त भक्ति में, प्रेमी प्रेम में, योगी योग में, भोगी भोग में इसी रस को खोजता है।


35. जिंदगी और सपने में क्या अंतर है? क्या जिंदगी सच है या सपना या दोनों ही झूठ की गठरी है ? 

जिंदगी और सपने में उतना ही अंतर है जितना सत्य और असत्य में। सपने सपनों में सत्य भाषित होते हैं,और जागने पर झूठ साबित होते हैं। उनका यथार्थ जीवन से कोई संबंध नहीं होता है। सपनों की ही भांति हम जिंदगी को भी विचारों में खोए-खोए जीते हैं। इसलिए यह झूठ या असत्य प्रतीत होती है।
जिंदगी का तात्पर्य है - अपने होने को महसूस करना। अपने होने को जानना। अपने होने के साथ जीना। तभी आप जान पाते हैं कि जिंदगी क्या है ?
अपना जागरण बढ़ाओं। अपने विचारों को कम करते जाओं। आप जिंदगी के करीब पहुंचते जाओंगे तथा अंतर कर पाओंगे कि जिंदगी सच है, या सपना। 
आपका प्रश्न, प्रश्न ही बना रहेगा, जब तक आप जाग न जाओं। एक जागा हुआ व्यक्ति ही जीवन जीता है। बाकि सभी के लिए जिंदगी और स्वप्न दोनों ही झूठ की गठरी है, दुख की गठरी है।


36. इंसान की इतनी कीमत क्यों है ?

इंसान की कीमत इंसान ही तय करता है, इसलिए इतनी कीमत है। अन्यथा  काटे जा रहे पेड़ों से पूछो कि इंसान की क्या कीमत है ?  शिकार किए जाने वाले जानवरों से पूछो, गंदी की जा रही निर्मल नदियों से पूछो, विश्वयुद्ध के कगार पर खड़ी दुनिया से पूछो कि इंसान की कीमत क्या है ? शायद, तब हमें इंसान की असली कीमत पता चलें।
इंसान की इतनी कीमत इसलिए है कि वह इस दुनिया में कुछ भी कर सकता है। आत्महत्या भी कर सकता है, कोई जानवर आत्महत्या नहीं करता है। कोई पेड़ आत्महत्या नहीं करता है।  
आध्यात्मिक रूप से समझे, तो इंसान ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जहां से वह चाहे तो किसी जानवर से भी नीचे गिर जाएं या देवताओं से भी ऊपर उठ जाएं। कृष्ण, महावीर या गौतम बुद्ध जिनके आगे देवताएं भी अपना सिर झुकाते हैं।
आप इंसान की कीमत छोड़िए। आप अपनी कीमत देखिए। शायद, आपको पता चल जाए कि इंसान की कीमत क्या है ?


37. जिंदगी में कैसे खुश रहे ?

वाणी ने प्रश्न पूछा है, और दुनिया के सारे लोग इसी प्रश्न के उत्तर की खोज में है।
दुख का एकमात्र कारण इच्छा है। हमारी जिंदगी में जरूरत से ज्यादा इच्छाएं दुख का कारण बनती है। इच्छाएं पूरी न हो तो व्यक्ति दुखी होता है। इच्छाएं पूरी हो जाए तो दुखी होता है। 
आज शहरों में सारे सुख-सुविधा के साधन है, फिर भी यहां का व्यक्ति दुखी है। खुशी बाहर की वस्तुओं में नहीं है। असली खुशी आपके अंदर है। इच्छाओं के पीछे भागते-भागते हम हमारी असली खुशी भूल गए हैं। हम खुशी से हंस भी नहीं पाते हैं। 
इच्छाएं हमें हमारे स्वभाव से दूर ले जाती है। हमारा स्वभाव आनंदपूर्ण है। हम आनंदस्वरूप है। लेकिन इच्छाओं के तले, हम जीवनभर दुखी होते रहते हैं। 
एक बच्चे के जन्म लेने से लेकर दो-तीन साल तक है वह अपने स्वभाव में रहता है उसके स्वभाव को महसूस करें। वही आपका स्वभाव है। जब आप अपने स्वभाव से दूर निकल जाते हो, तो दुखी होते हो। अन्यथा, दुनिया की कोई ताकत आपको दुखी नहीं कर सकती है। 
आप अपने स्वभाव को पहचानने। उसके लिए आप कुछ समय बच्चों के साथ बच्चे बन जाया करें। उनके भाव को महसूस करें। उनके साथ खेलें। अपने अनुसार नहीं, उनके अनुसार खेलें और अपने आप को भूल जाएं। आप अपने स्वभाव को पहचान लेंगे। फिर आपको पूछना नहीं पड़ेगा कि जिंदगी में खुश कैसे रहे? यह प्रश्न, बच्चे कभी दूसरों से पूछने नहीं जाते है। 


38. परिवर्तन से सब को डर क्यों लगता है ?

व्यवस्था, नियम या हम अपने विचारों से ही चिपके रहना चाहते हैं। उसे ही हम अपनी आत्मा मान लेते हैं। और जब परिवर्तन की बात आती है, तो हमें ऐसा प्रतीत होता है जैसे अपनी आत्मा ही शरीर से निकलने वाली हो। हम मरने वाले हो। परिवर्तन में मृत्यु भय है, इसलिए सबको डर लगता है। जबकि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। साक्षीभाव रखिए। आप दुनिया के सारे परिवर्तनों में आनंदपूर्ण रहेंगे।


39. मेघा गोयल ने प्रश्न भेजा (send) है। वह पूछती है, मनुष्य के अंदर गलत विचार क्यों आते हैं ?

मनुष्य का मन सदा पूर्णता में सोचने की कोशिश करता है।  मन बहुआयामी (multidimensional) है। उसका स्वभाव है कि जब वह एक दिशा में  गति करता है, तो विपरीत दिशा को ही आधार बनाता है। विपरीत दिशा हमेशा मन के पीछे छिपी रहती है। यदि आपका मन सिर्फ एक दिशा में गति करता है, तो आप मनबुद्धि हो जाते हैं। 
विचार मात्र विचार है। सही और गलत की धारणा हम बनाते हैं। किसी एक धर्म में कोई विचार पुण्य है, तो किसी दूसरे धर्म में वही विचार पाप हो सकता है। और जो दूसरे धर्म में पाप है, वह अपने धर्म में पुण्य हो सकता है। 
अगर आप गलत विचारों को छोड़ते हैं, तो आपको सही विचार भी छोड़ने पड़ेंगे। सही और गलत विचारों से आपके मन को दिशा मिलती है। 
गलत विचार तब गलत होता है, जब वह आप पर प्रभाव डालता हो। वह अपनी दिशा में सोचने के लिए बाध्य कर देता हो। 
आप विचारों से ऊपर उठने पर ही विचारों से बच सकते हैं। फिर आप जो सोचना चाहेंगे, वही सोच पाएंगे और जो नहीं सोचना है, वह नहीं सोचेंगे।
ध्यान कीजिए और विचारों से मुक्त रहिए।


40. क्या भगवान पर विश्वास रखना अंधविश्वास है ?

हां! भगवान पर विश्वास रखना अंधविश्वास है। आपका आप पर विश्वास नहीं है कि आप अगले छण क्या करेंगे? आप भगवान पर कैसे विश्वास कर सकते हो ? जब तक आपका आप पर विश्वास नहीं है, तब तक आपका भगवान पर विश्वास अंधविश्वास ही है। 
जन्म के समय से ही आपको हर क्षण सहारे की जरूरत पड़ी है। वही सहारा अभी भी आपका पीछा कर रहा है। भगवान आपकी मदद करें या न करें, परंतु जब आपको किसी पर विश्वास नहीं होता हैं, तो भगवान पर विश्वास आपको साहस या सहारा देता है, जो आपका आप पर ही विश्वास होता है। यह विश्वास आप किसी बाहरी शक्ति से प्राप्त करते हैं, जबकि यह आपके अंदर ही है। आप अपने पर विश्वास करें। आपको ध्यान से  विश्वास प्राप्त होगा। आपको भगवान आपके अंदर ही मिलेंगे। 


41. मृत्यु क्या है ? इसके बारे में विस्तार से वर्णन करें।

 ब्रह्मांड में जो बना है, वह एक दिन मिटेगा। प्रकृति का नियम है जो बनता है वह मिटता भी है। चाहे, वह कोई वस्तु ही क्यों न हो। 
जन्म लेने और मृत्यु को प्राप्त होने की प्रक्रिया लगातार चलती रहती है। यह एक चक्र है जिसमें मनुष्य गोल-गोल घूमता है। 
हम जिसे मृत्यु कहते हैं, वह मृत्यु नहीं है। वह तो शरीर से अलग हो जाना है, ताकि नए शरीर और मन के साथ दोबारा जन्म पा सकें तथा अपनी यात्रा जारी रख सकें। 
मनुष्य अपनी अधूरी इच्छाओं के कारण मृत्यु से भयभीत होता है। जबकि मृत्यु एक सामान्य घटना है। जैसे-वह व्यक्ति जो कम समय में बहुत आगे जाना चाहता हो। जिसने अपने जीवन की सारी पूंजी किसी व्यापार में लगा दी हो और उसे फायदे की बजाए नुकसान हो रहा हो। जब तक वह अपने मन से सारे काम समाप्त न कर लें वह रातभर सो नहीं सकेगा। उसे भय के कारण नींद नहीं आएंगी। जबकि नींद सामान्य घटना है। 
मृत्यु एक गहरी नींद ही है, ताकि आप नई सुबह में नए शरीर और मन के साथ जाग सकें। 
जब मनुष्य जन्म-मृत्यु के चक्र में घूमते-घूमते थक जाता है, तब उसकी आत्मा में मोक्ष की कामना स्वयं उठती है।


42. जिंदगी की दौड़ में क्या है, जो अक्सर छूट जाता है ?

 जिंदगी की दौड़ में स्वयं जिंदगी छूट जाती है। जिंदगी दौड़ नहीं है। जब आपकी सारी दौड़ रुक जाती है, तब आपको जिंदगी का एहसास होता है। 
हमने हमारे जीवन में सभी को दौड़ते हुए देखा है, तथा हमने भी दौड़ना सीख लिया है। हम बस दौड़ रहे हैं। हमें यह तक नहीं मालूम है कि हम क्यों दौड़ रहे हैं ? हमें कहां जाना है ? 
क्या आप जानते हैं कि जीवन क्या है ? मेरा होना क्या है ? मैं कौन हूं ? मैं कहां से हूं ? मुझे कहां जाना है ? कि बस यूं ही दौड़े चले जा रहे हो। इस दौड़ से आप कहीं नहीं पहुंचेंगे, और जब दौड़ने की शक्ति नहीं रहेगी, तब पछताओंगे। 
जीवन का उद्देश्य जीवन ही है। लेकिन हम दौड़ को याद रखते हैं और जीवन को भूल जाते हैं। जीवन को याद रखों और दौड़ को भूल जाओं। जीवन स्वयं से ही जी लेगा। आप अपने को जीवन के हवाले छोड़ दों। जीवन की धारा से जुड़कर बहे चलों। एक दिन समुद्र को पा ही लोगें। अब यह मत पूछना कि जीवन क्या है ? जीवन को जानना है, जीना है।


43. क्या जीवन को वर्तमान में जीना यकीनन संभव है ?

आप यह पूछ रहे हैं कि क्या दुख को छोड़कर सुख एवं आनंद में जीना संभव है ? आप वर्तमान के आनंद को भुला चुके हो। जबकि आप वर्तमान में जीवन जी चुके हो। 
जब आप बच्चे थे, तो वर्तमान में ही जीवन जीते थे। लेकिन इच्छाओं के बीज होने के कारण मन का निर्माण हुआ और आपने स्वयं को मन ही समझ लिया। 
आप साल-दो-साल के बच्चे को देखो। वह वर्तमान में ही जीता है। अब आप बच्चों के साथ बच्चे बन जाईए। उनमें मिल जाईए। उन्हें महसूस करिए। उनकी आंखों से दुनिया को देखने की कोशिश कीजिए। आप यह कर पाएंगे, क्योंकि आप भी कभी उस अवस्था में थे। वह बच्चा आज भी आपमें जीवित है। 
आपको वर्तमान के आनंद का अनुभव नहीं है। अन्यथा, आप आनंद की ओर स्वयं खींचे चले जाते है। 
लोग नशे की ओर क्यों खींचे चले जाते हैं ? उसमें उन्हें आनंद की झलक मिलती है। उस झलक के लिए ही वे नशे के आदी हो जाते हैं। लेकिन आनंद नशा नहीं है। वह तुम्हारा स्वभाव है। तुम्हारा होना है। वही तुम हो। 
आप पल-पल स्वयं को महसूस करते हुए जियो। चाय पियो तो अपने होने को याद रखों। नहाओं तो याद रखों, भोजन करो तो...सोने जाओ तो...। एक दिन आपको याद रखने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। आप स्वयं में पूर्णत: उपस्थित होंगे, वर्तमान में स्थित होंगे।


44. सुख-दुख क्या है ?

सुख-दुख हमारे मन की अवस्था है। मन से जिसमें सुख मिलता है वह सुख है। जिससे दुख मिलता है वह दुख। 
मेरे लिए जो सुख है वह आपके लिए दुख हो सकता है और जो आपके लिए सुख है वह मेरे लिए दुख। सुख-दुख की परिभाषा आपके मन के ऊपर निर्भर है। 
थोड़ा और आगे कहूं तो सुख-दुख मन का खेल है। जिसमें आपको सुख मिलता है, उसी में दुख मिलने लगता है। आप सुख के पीछे भटकते रहते हो और दुख आपके पीछे भटकते हुए चला आता है। 
सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आप सिक्के को पूर्णत: स्वीकार कर लें या सिक्के को पूर्णत: छोड़ दें, तो महासुख या आनंद को उपलब्ध हो जाएंगे। जिसका विपरीत पहलू नहीं है। 


45. धर्म का उद्देश्य मनुष्य को कहां ले जाना है ? 

जीवन की ओर। आनंद की ओर। 
हम जो देखते हैं, उसे ही सत्य मान लेते हैं। जिन लोगों के बीच रहते हैं, उन्हीं के जैसे हो जाते हैं। जो सीखते हैं उसी से बंध जाते हैं। हम इसे ही जीवन समझ लेते हैं। 
धर्म हमारे जीवन में तब आता है, जब हमारे जीवन का अंत समय आ जाता है। हम जीवन और आनंद को जान ही नहीं पाते हैं, और मृत्यु घटित हो जाती है। 
हम सिर्फ मरना जानते हैं, क्योंकि जीने का फायदा भी क्या है ? अंत में मृत्यु सब कुछ मिटा ही देगी।
धर्म आपको जीना सिखाता है। आपको सत्य दिखाता है। आप जो होने को पैदा हुए हैं, बनाता है। तब आनंद घटित होता है। उस आनंद में आप दुनिया के सम्राट बन जाते हो। जीवन और मृत्यु आपके लिए खेल हो जाता है।


46. क्या ईश्वर है ?

ईश्वर है भी,और नहीं भी है। ईश्वर तुम्हारी तरह दिखाई देता है, और तुम्हारी आत्मा की तरह दिखाई नहीं देता है। 
ईश्वर और उसकी रचना एक है। जीसस, मोहम्मद और कृष्ण की तरह आप और आपका ईश्वर एक है। 
आप अदृश्य से दृश्य होते हो। आप सिर्फ दृश्य हिस्से को जान पाते हो। अदृश्य हिस्सा अदृश्य ही रह जाता है। वह अदृश्य हिस्सा या आपकी आत्मा सिर्फ दृश्य को ही जान पाती है। इसलिए वह दृश्य की ओर आकर्षित होती रहती है और बार-बार जन्म लेती रहती है। जब वह अपने असली रूप को जान लेती है, तो वह वही हो जाती है। ईश्वर हो जाती है। 
आप ईश्वर होने की संभावना लेकर पैदा होते हैं। आप शरीर से विकसित हो जाते हैं। मन से विकसित हो जाते हैं, लेकिन आत्मा से अविकसित रह जाते हैं। यही आपकी कमजोरी है।


47. क्या बताएंगे कि ब्रह्म सत्य,जगत मिथ्या का तात्पर्य क्या है ?

ब्रह्म एक अदृश्य तत्व है। जगत उसी से आता है, और उसी में समा जाता है। जब जगत नहीं होगा तो सिर्फ ब्रह्म होगा। ब्रह्म चाहेगा तो जगत को दोबारा उत्पन्न करेगा। यह अनुभव ब्रह्म को जानने वालों का है। 
ब्रह्म सत्य,जगत मिथ्या एक सूत्र है। जिसे एक उपाएं की तरह भी इस्तेमाल किया जाता है। अगर आपके मन में गहरा भाव बैठ जाएं कि जगत मिथ्या है तो आप ब्रह्म को उपलब्ध हो जाएं। 
इसके लिए आप एक प्रयोग करें। आपको जगत में जो दिखाई दे, जानो कि यह मिथ्या है, असत्य है। 21 दिन सतत, हर क्षण ध्यान बना रहे कि यह जगत मिथ्या है़... जह जगत मिथ्या है...यह जगत मिथ्या है... इसे मन में रटना नहीं है। इसे अनुभव करना है, जानना है।
पत्नी मिथ्या, पति मिथ्या, घर की सारी वस्तुएं मिथ्या, संसार की हर वस्तु मिथ्या। आप की स्मृति में एक ही अनुभव रह जाएं कि यह जगत मिथ्या है। आपको 21 दिनों में, किसी भी क्षण अनुभव हो जाएगा कि ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या है।


48. मनुष्य मोक्ष के बारे में कुछ नहीं जानता है, फिर भी मोक्ष क्यों पाना चाहता है ?

मनुष्य में जीवन की चाहत है। वह आनंद चाहता है। जीवन और आनंद की चाहत में ही मोक्ष की कामना उठती है। जीवन, प्रेम, स्वर्ग, ईश्वर, मोक्ष आप जो नाम देना चाहे, सब एक ही है। यही हमारा स्वभाव भी है, यही हमारा जीवन है। लेकिन इसे हम जी नहीं पाते हैं, इसलिए दुखी होते हैं और मोक्ष की  जिज्ञासा करते हैं। 
नदी सागर को पाना चाहती है, पेड़ आसमान को छूना चाहता हैं, प्रेमी प्रेम में खो जाना चाहता है, भक्त भक्ति में खो जाना चाहता है, इसलिए मनुष्य मोक्ष पाना चाहता है। 
मनुष्य सपनों में खोया है जो असत्य है। जिस दिन सपने टूटेंगे वह मोक्ष पाना चाहेगा।


49. गीता का सार अपने शब्दों में समझाइएं।

आत्मा जन्म-मरण से परे है, लेकिन आप उसे जानते नहीं हो। उसे जान लेने पर, आप अपनी आत्मा में स्थित हो जाते हो, जिसने न कभी जन्म लिया और न कभी मरेगा। यही मोक्ष की अवस्था है, यही आत्मउपलब्धि है। जिसे पाकर आप सारे दुखों एवं सुखों से ऊपर उठ जाते हो तथा सदा आनंद में रहते हो। यही स्थितप्रज्ञ अवस्था है।
वस्तुओं का चिंतन करते रहने से उनमें आपकी आसक्ति हो जाती है, लगाव हो जाता है। जिसके कारण आप अपनी आत्मा को छोड़, वस्तुओं को पाने के लिए कर्म करते हो, जो दुख का कारण बनती है। 
कोई भी मनुष्य कर्म किए बिना नहीं रहता है। अतः आपको आसक्ति रहित होकर, अपनी आत्मा में स्थित होकर कर्म करना चाहिए। यही कर्ममुक्त अवस्था है। कोई कर्म न करना, संसार को छोड़कर चले जाना सन्यास नहीं है। क्योंकि आप जहां जाएंगे मन के साथ संसार आपका पीछा करेगा। अतः संसार में रहकर अपने मन से ऊपर उठ जाना ही सन्यास है। 
यह चंचल मन जहां-जहां भटकता है उसे वहां से हटाकर अपनी आत्मा, अपने होने में लगाना चाहिए ताकि आप आत्मा में स्थित हो जाएं, स्थितप्रज्ञ हो जाएं। 
आपको आत्मज्ञान उसी से लेना चाहिए जो आत्मउपलब्ध हो, जिसे आत्मा का ज्ञान हो। वही आपके लिए आत्मा या ईश्वर को पाने का रास्ता बना सकता है। 
कृष्ण कहते हैं, "मैं पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त हूं।" अर्थात, ईश्वर कण-कण में है। आप जिसे भी पुजते हैं उसके द्वारा ईश्वर को ही पुजते हैं। अगर आप तन-मन-धन से समर्पित होकर ईश्वर का ध्यान करें तो शीघ्र ही उसे प्राप्त कर लें।


50. स्कूल की पढ़ाई विद्या है कि अविद्या ? 

स्कूल की पढ़ाई अविद्या है, अगर ज्ञान के साथ विवेक न सिखाया जाता हो। विचारों के साथ अविचार न सिखाया जाता हो। मन के साथ अमन न सिखाया जाता हो। ज्ञान के साथ ध्यान न सिखाया जाता हो। 
अगर हम किसी को विचार सिखाते हैं, तो विचारों से मुक्त रहना भी सिखाया जाना चाहिए। क्योंकि वे विचारों से परे जाकर ही विचारों को समझ सकते हैं। विवेक को जान सकते हैं। 
सही और गलत की पहचान विवेक ही देता है। विवेक के बिना विचार तो बेलगाम घोड़े हैं, जिन्हें नहीं पता है कि करना क्या है ? दिशा क्या है ? लक्ष्य क्या है ? 
हम बच्चों को सोने की जंजीरे तो पहना देते हैं लेकिन उनसे मुक्त रहना नहीं सीखा पाते हैं। यही संसार का दुख है। बच्चे दुख को ही सुख समझने लगते हैं। वे इसका बदला संसार से लेते हैं। यही संसार की विडंबना है। 
अब समय बदल रहा है। बच्चे भी तर्क करने लगे हैं। अब वे भी जानना चाहते हैं कि सही और गलत क्या है ? सही और गलत का निर्णय कैसे लें। जीवन क्या है ? सत्य क्या है ? 
मन और बुद्धि एक ही है। हम बुद्धि को ही विवेक समझ लेते हैं। अगर बच्चों को सिखाया जाता है कि हिंसा करना पाप है, तो बच्चे हिंसा को पाप समझते हैं। अब बच्चों से पूछा जाता है कि पाप क्या है ? तो वे कहते हैं, "हिंसा करना पाप है ?" यह उत्तर उनकी बुद्धि ने दिया है। जबकि यह आया कहां से है ? यह मन से आया है, जो पहले ही उसके मन में डाला गया था। अतः बच्चों के मन में जो होता है, बुद्धि उसी अनुसार सोचती है। 
बच्चों को एक समय जो सिखाया जाता है, वह अगले समय बाद गलत हो सकता है। 
विवेकवान व्यक्ति सीधे-सीधे जान पाता है कि सही और गलत क्या है ? पाप और पुण्य क्या है ? उसके पास बने बनाएं विचार नहीं होते हैं। उसमें विचार करने की शक्ति होती है। वह जो भी करें  सहीं होता है। उससे गलत होने पर उसे पछतावा नहीं होता है।


51. मन को समाधि की स्थिति तक कैसे लेकर आएं ? 

पहली बात, मन समाधि की स्थिति तक नहीं जा सकता है। मन ही समाधि में जाने से रोकता है। इसलिए मन को छोड़ना है, अमन की स्थिति तक पहुंचना है। अमन ही समाधि की स्थिति तक पहुंचता है। 
अमन विचारों से परे आपका होना है। यही आपका जागरण है, क्योंकि आप विचारों में खोए-खोए जीते हो? 
आप अमन से निराकार में प्रवेश कर सकते हो। आप होने से न होने को जान सकते हो। आप जागरण से समाधि का अनुभव पा सकते हो। 
ध्यान एकमात्र ऐसा उपाय है जो आपको मन से अमन की स्थिति तक पहुंचाता है। आपको होना सिखाता है। आपको मूर्छा से जागरण की ओर लेकर जाता है। 
ध्यान, अमन, जागरण और आपका होना ही समाधि की स्थिति तक पहुंचते हैं। अतः ध्यान कीजिए। इससे आपका अमन विकसित होगा। यही आपका होना है, यही जागरण है।


52. क्या माया को देखना भी एक माया है ? 

हम माया (illusion) से लिप्त हैं। हम माया के ही अंग है। हम माया ही है। यह देखने वाली आंखें भी माया है। हमारे अंदर माया को देखने वाला, जानने वाला कोई तत्व नहीं है इसलिए माया को देखना माया है। 
हम किसी रूचिपूर्ण (interesting) पिक्चर में ऐसे खो जाते हैं जैसे हमारा कोई अस्तित्व ही न हो। पिक्चर का हीरो खुश होता है तो हम खुश होते हैं। वह दुखी होता है तो हम दुखी हो जाते हैं। वह लड़ाई करता है तो हम जोश में आ जाते हैं। पिक्चर के मध्यांतर या समाप्ति पर ही हमें मालूम पड़ता है कि यह तो पिक्चर चल रही थी। तब हम अपने आप पर हंस भी सकते हैं कि देखो कैसे मुर्ख बन रहे थे। 
अगर हम हमारे अंदर कोई ऐसा व्यक्तित्व या तत्व पैदा कर ले, जो माया को अपने से अलग जान सकें, माया को माया की तरह देख सकें और यह जानना लगातार बना रहे तो माया को देखना माया नहीं होता है। अब हम जानते हैं कि माया और सत्य क्या है ? माया को माया की तरह जानना ही आत्मदर्शन है।


53. दुर्योधन ने भगवान श्री कृष्ण के दर्शन करने के बाद भी अधर्म नहीं छोड़ा, क्या कारण है?

हर व्यक्ति स्वयं से बंधा है मन से बंधा है। हर व्यक्ति को लगता है कि वह धर्म मार्ग पर है। वह जो कर रहा है, सही कर रहा है। अतः जिसे लगता है कि वह सही है तो वह दूसरों की बात क्यों मानेगा? वह वही करेगा जो उसे सही लगता है।
लाखों-करोड़ों में कोई एक व्यक्ति भगवान के दर्शन मात्र से धार्मिक हो जाता है, अपना अधर्म छोड़ता है। 
अर्जुन की बात करें तो वह स्वयं कृष्ण की बात मानने के लिए तैयार नहीं था। जबकि कृष्ण भगवान थे, उसके सखा थे, उसके पक्ष में खड़े थे। भगवान के सामने खड़े होकर भी उनसे कैसे-कैसे तर्क करता है, ज्ञानियों की तरह बातें करता है।
अर्जुन कहता है, "अपने ही सगे संबंधियों को मारकर राजपाट पाने से क्या लाभ है? इससे अच्छा है कि मैं जंगल चला जाऊं, सन्यासी हो जाऊं। बड़ा ही सटीक तर्क है। परंतु कृष्ण के लिए अधार्मिक है। ऐसे ही तर्को से पूरी गीता भरी है।
कृष्ण ने अर्जुन जैसे शिष्य और सखा को भी धर्म के मार्ग पर लाने के लिए पूरी गीता कही और ऐसे समय पर जब सभी के प्राण दांव पर लगे थे।
अब आप समझे, दर्शन मात्र से कोई अधर्म नहीं छोड़ता है।


54. मैं बहुत कुछ करता हूं एक अच्छा इंसान बनने के लिए फिर भी नाकामयाब हो जाता हूं। ऐसा क्यों?

आप नाकामयाब हो जाते हो क्योंकि आप एक अच्छे इंसान पहले से ही हो।
आप किस आधार पर अच्छा होना चाहते हो, अपने आधार पर, अपने परिवार के आधार पर, लोगों के आधार पर या समाज के आधार पर? क्या आपको पता है कि अच्छा इंसान होना क्या है?
अच्छा और बुरा, सही और गलत की परिभाषा प्रत्येक मनुष्य में अलग-अलग होती है। इसलिए आप अच्छे इंसान कभी नहीं बन पाएंगे।
अभी आप कुछ लोगों के लिए अच्छे हो और कुछ लिए बुरे। आपके अच्छे हो जाने पर भी आप कुछ लोगों के लिए अच्छे रहोगे और कुछ लोगों के लिए बुरे।
आप अपने जीवन में थोड़ा ठहराव लाइए। अपने आप से मत भागिए। आप जैसे हैं वैसे ही रहिए। उस होने को महसूस कीजिए। उसके साथ बने रहिए। अपने आप को परिभाषित मत कीजिए। अपने होने को जिए। अपने बुरे होने को जिए। किसी क्षण आप उस आनंद को प्राप्त कर लेंगे, जिसमें रहकर आपने कभी किसी का बुरा नहीं किया होगा। आप अच्छा और बुरा, सही और गलत की परिभाषा के ऊपर उठ जाएंगे। तब आप अच्छे इंसान होंगे। यह बिना  जाने कि आप अच्छे इंसान हैं।


55. धर्म, अध्यात्म और दर्शन का प्रयोजन क्या है?

धर्म, अध्यात्म और दर्शन फिजूल कार्य लगता है, क्यों साधारण: जीने के लिए इनकी आवश्यकता नहीं पड़ती है। लेकिन जीवन में दुख का उपाय न होने पर इसका ख्याल आता है।
हम ईश्वर को याद करते हैं। ईश्वर को दोषी ठहराते हैं। भाग्य को कोसते हैं। हमें अध्यात्म या धर्म का सिर्फ खयाल आता है। यूं तो हम सुख और दुख को ही जीवन समझ कर जिए चले जाते हैं और अपने आप को आध्यात्मिक मान लेते हैं। थोड़ा सा पुण्य कर लेते हैं, दान दे देते हैं, मंदिर चले जाते हैं, यात्रा कराते हैं, गंगा नहा लेते हैं।
हम सभी आनंद की खोज में है। यही धर्म, अध्यात्म और दर्शन का प्रयोजन है। यह प्रयोजन तभी समझ आता है, जब हमें सत्य उपलब्ध होता है। जब हमें आनंद उपलब्ध होता है। इसके बिना धर्म और अध्यात्म का प्रयोजन झूठा है।
आध्यात्मिक आनंद परम है। यही जीवन है। जीवन जीने की कला भी है। इससे बड़ी कोई कला नहीं है। एक कलाकार ही कला को समझता है। उसके प्रयोजन को समझता है। अध्यात्म का स्वाद लो। यह स्वाद ही समझएगा कि धर्म, अध्यात्म और दर्शन का प्रयोजन क्या है।


56. पाप करने पर भी परमात्मा की प्राप्ति कैसे होती है?

क्या आपको मालूम है कि पाप क्या है? आपको किसने समझाया है कि यह पाप है और वह पुण्य। क्या आपको नहीं लगता है कि पाप और पुण्य इंसान ने बनाए हैं? क्या आपको नहीं लगता है कि सभी लोगों का परमात्मा एक है? 
किसी धर्म में कोई कर्म पुण्य है तो वही कर्म किसी दूसरे धर्म में पाप हो सकता है या फिर किसी दूसरे धर्म में जो कर्म पाप है, वह हमारे धर्म में पुण्य हो सकता है। हमारे द्वारा सांस लेने और छोड़ने से हजारों जीवाणु नष्ट हो जाते हैं, तो क्या हम सांस लेना छोड़ दे? फिर भी आपको लगता है कि आपसे पाप हो रहा है, तो पाप करने पर ज्यादा ध्यान मत दों। परमात्मा को प्राप्त करने की फिक्र करें। परमात्मा को प्राप्त करने के रास्तों पर चलें। आपसे पाप कर्म अपने आप कम होते जाएंगे। और जिस दिन आप परमात्मा को प्राप्त कर लेंगे, उसी दिन से पाप कर्म नहीं कर पाएंगे। परमात्मा प्राप्ति के पहले पाप कर्म से मुक्ति असंभव है। परमात्मा प्राप्ति के बाद आप जो कर्म करेंगे, वही पुण्य होगा। अब आप समझे, परमात्मा की प्राप्ति करना ही पुण्य है बाकी सब पाप। 


57. जब इंसान सब कुछ खो दे, तो खुदकुशी का ही ख्याल क्यों आता है? 

जब एक इंसान सब कुछ खो दें, तो खुदखुशी का नहीं, खुशी का ख्याल आना चाहिए। क्योंकि सब कुछ खोने के साथ उसकी सारी परेशानियां भी खो जाती हैं।
हम वस्तुओं के साथ एक हो गए हैं। इस संसार की वस्तुएं ही हमारी आत्मा बन गई है। अतः जब इंसान सब कुछ खो दें, तो उसे ऐसा लगता है मानो उसने अपनी आत्मा ही खो दी है। आत्मा के खोने की घबराहट में उसे लगता है कि अब जीने को कुछ भी नहीं रहा गया है। तब वह मृत्यु या खुदकुशी के बारे में सोचने लगता है। 
औरतों का वस्तुओं से बड़ा लगाव होता है। जब वे अपना सब कुछ खो देती है, तो घबराहट में तुरंत बेहोश हो जाती है। 
एक संत ही सब कुछ खो कर आनंदित हो सकता है। यही एक संत और आम इंसान में फर्क है। 
एक किस्सा याद आता है। एक इंसान को किसी ने खबर दी कि आपकी पत्नी और बच्चों के साथ आपका पूरा घर जलकर राख हो गया है। यह सुनकर वह इंसान करीब-करीब बेहोश हो गया। तभी किसी और व्यक्ति ने खबर दी कि वह आग आपके घर में नहीं, किसी ओर के घर में लगी थी। वह इंसान तुरंत होश में आ गया और मुस्कुराने लगा। 
हम वस्तुओं को कमाने में पूरा जीवन गवा देते हैं और वस्तुओं में जीने लगते हैं। हम इन्हें ही अपना संसार बना लेते हैं। इनके खो जाने पर हमें लगता है जैसे हमने अपना पूरा जीवन ही खो दिया हो। अब जीने का क्या फायदा है। इसलिए मृत्यु का ख्याल आता है, खुदकुशी का ख्याल आता है। अतः हमें अपने आपको महत्व देना सीखना होगा। हमें स्वयं के साथ जीना सीखना होगा। स्वयं के साथ जीना ही तो आत्मज्ञान को प्राप्त कर लेना है। जो आत्मज्ञानी होते हैं, वे स्वयं के साथ जीते हैं। उन्हें वस्तुओं को खोने का भय नहीं होता है और न ही इन्हें पाने का लालच। वे सदा मुक्त रहते हैं। आनंद में रहते हैं। 
यह जीवन का सबसे बड़ा मोड़ होता है, जब एक इंसान अपना सब कुछ खो देता है। अगर इस समय उसके सामने अध्यात्म का मार्ग खुला होता है तो वह आनंद व मुक्ति को उपलब्ध होता है, अन्यथा मृत्यु को।

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